नजारा-ए-महफ़िल, तुर्रा वैसी उनकी शिरकत,
न
वाह मुंह से निकला, हाय- आह भी न निकली.
गुस्ल-ओ-वजू, नमाज़,
रोज़े भी किये हमने,
न ही खुशबू कम हुई, उनकी
चाह भी न निकली.
हम पड़े थे राह में-
कि कुछ रिवायतें होती हैं,
ये क्या- न उठे
पाँव, ढंकी बांह भी न निकली!
क्या इसे ही कहते हैं
‘नज़र’- उम्मीद, इंतज़ार,
ना ही बंद हुई खिड़की, कोई
राह भी न निकली.
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